इतिहास के बारे में कुछ असहमत टिप्पणियां

अफवाह और इतिहास
 
हमारे महापुरुष जितना इतिहास की किताबों में हैं, अफवाहों में उससे तनिक कम नहीं हैं। सबसे ज्यादा अफवाह गांधी बाबा को लेकर है। मेरी मां बताया करती थीं कि गांधी को उनकी इच्छा के विरुद्ध अंग्रेजी सरकार भी जेल में बंद नहीं रख सकती थी। गांधी में 'चमत्कारी' शक्ति थी और वे इस शक्ति की बदौलत जब चाहते थे, जेल का फाटक खुल जाता था और वे बाहर निकल जाते थे। गांधी जब चंपारण आए तो चमत्कारी शक्तियां भी उनके साथ आयीं। बेतिया के आसपास के इलाकों में पेड़-पौधों से लेकर छप्पर के कद्दू तक पर गांधी की आकृति उभरने लगी। इस सब की जड़ में लोगों का यह विश्वास था कि गांधी कोई साधारण आदमी नहीं बल्कि 'अवतारी पुरुष' हैं। गांधी को आदमी से अवतारी पुरुष बनाने में इन अफवाहों की खासी भूमिका रही है।

 नेहरु भी इन अफवाहों से  अप्रभावित नहीं हैं। जब मैं छोटा था तो अक्सर लोगों के मुख से सुनता था कि नेहरु के कपड़े पेरिस से धुलकर आते थे। तब मेरा बालसुलभ ज्ञान इसका काट नहीं जानता था। बल्कि एक स्थापित तथ्य की तरह इसे मानकर चलता था। नतीजतन मेरी किशोरावस्था नेहरु की आलोचना, बल्कि कहिए कि लानत-मलामत के साथ जवान हुई। कॉलेज में जब नेहरु के बारे में पढ़ा तो सही जानकारी मिली। नेहरु को स्वयं इस अफवाह की जड़ काटनी पड़ी। वे लिखते हैं, 'मुझे पता लगा कि मेरे पिताजी और मेरे बारे में एक बहुत प्रचलित दंतकथा यह है कि हम हर हफ्ते अपने कपड़े पैरिस की किसी लॉन्ड्री में धुलने को भेजते थे। हमने कई बार इसका खण्डन किया है, फिर भी यह बात प्रचलित है ही। इससे ज्यादा अजीब बाहियात बात की कल्पना भी मैं नहीं कर सकता।' (जवाहरलाल नेहरु, 'मेरी कहानी', सस्ता साहित्य मंडल, 1988, पृष्ठ 295) इसी तरह की एक दूसरी प्रचलित दंतकथा है कि 'मैं प्रिंस ऑफ वेल्स के साथ स्कूल में पढ़ता था। सच बात तो यह है कि न तो स्कूल में ही उनके साथ पढ़ा हूँ और न मुझे उनसे मिलने या बात करने का ही मौका हुआ है।' (जवाहरलाल नेहरु, मेरी कहानी, सस्ता साहित्य मंडल, 1988, पृष्ठ 295-96) 'नौजवान स्त्री-पुरुषों का तो, एक प्रकार से, मैं नायक बन गया था। और उनकी निगाह में मेरे आसपास कुछ वीरता की आभा दिखाई पड़ती थी, मेरे बारे में गाने तैयार हो गये थे और ऐसी-ऐसी अनहोनी कहानियाँ गढ़ ली गई थीं, जिन्हें सुनकर हंसी आती थी।' (जवाहरलाल नेहरु, मेरी कहानी, सस्ता साहित्य मंडल, 1988, पृष्ठ 294) इन बातों से आप अंदाजा लगा सकते हैं कि अफवाह की जड़ कितनी गहरी पैस चुकी थी। हालांकि आज भी इसकी हरियाली कुछ कम नहीं हुई है।

सन 2000 के आसपास की बात है जब मैं एकलव्य एड्यूकेशनल कॉम्प्लेक्स नामक पटना के एक पब्लिक स्कूल में पढ़ाया करता था। पंकज कुमार वहां अंग्रेजी विषय के शिक्षक हुआ करते थे। उनसे हमारी कई चीजों पर बात होती। हम भारतीयों की एक विचित्र गड़बड़ी है कि बात चाहे किसी भी विषय पर शुरू हुई हो, समाप्ति गांधी-नेहरु से ही होगी। मैं अक्सर नेहरु के पक्ष में बोलता और वे विपक्ष में। बल्कि कई बार तो स्थिति भयानक हो जाती जब वे नेहरु के कई स्त्रियों के साथ यौन संबंध स्थापित करते हुए चरित्रहनन तक शुरू कर देते। मेरी असहमति से वे गुस्से में आ जाते और कहते, 'मैं तो नेहरु की धज्जी उड़ा दूंगा।' वे इस पूरी बातचीत में क्लेमा कैथरीन का एडविना और नेहरु उपन्यास को प्रमाण के बतौर प्रस्तुत करते। तबतक वह किताब अपठित थी। डरते-डरते मैंने वह किताब उनसे पढ़ने को ली। पढ़ा तो पाया कि एडविना और नेहरु जैसा प्रेम तो उस किताब के लगभग सारे पात्र कर रहे हैं, चाहे वे गांधी, जिन्ना, सरोजिनी नायडू हों या और कोई।

 नेहरु से जुड़ी एक और घटना है। इसे मैं अपने गांव में बचपन में सुना करता था। देश-विभाजन के दिनों की बात है। भड़क उठे दंगों को रोकने के लिए नेहरु दौरा कर रहे। उन्हें हमारे गांव के निकटतम रेलवे स्टेशन नादौल भी आना था। हमारे गांव से कई लोग नेहरु को देखने गये थे। कुछ लोग नेहरु की नीतियों से खिन्न भी थे। उन्हीं में से कमता सिंह नामक एक व्यक्ति, जो तनिक जादू-टोना भी किया करते थे, गांव से ही एक ढेला लेकर गये थे। ग्रामवासियों से उन्होंने कह रखा था कि इसी ढेले से वे दूर से ही नेहरु पर प्रहार करेंगे। किंतु ऐन मौके पर उस जादूगर का ढेला हाथ से छूटकर नीचे गिर गया और नेहरु को मारने की मुराद पूरी न हो सकी। जैसा कि किस्सा है, 'नेहरु ने उन महाशय का हाथ बांध दिया था।'

इतिहास और तात्कालिकता 

जवाहरलाल नेहरु ने 'पिता के पत्र पुत्री के नाम' लिखे एक पत्र में अपनी दसवर्षीया पुत्री को जॉन ऑफ आर्क के हवाले से बताया है कि असामान्य परिस्थिति में अत्यंत सामान्य बात भी असाधारण महत्त्व की हो जाती है। इसे हम अपने गांवों में प्रचलित एक छोटी बात से समझ सकते हैं। बिहार के गांवों में कार्तिक मास में भूरा (उजला गोल कद्दू) दान करने तथा उसकी बलि देने की धार्मिक प्रथा रही है। 1910 के आसपास उत्तर प्रदेश में वार्षिक काली पूजा के अवसर पर सफेद कुम्हड़ा या पेठा की बलि दी जाती थी। यों तो इसका कोई खास अर्थ नहीं था, किंतु लोगों ने इसका अर्थ यह लगाया कि सफेद कुम्हड़ा माने सफेद चमड़ी वाला अंग्रेज। (मन्मथनाथ गुप्त, 'भारतीय क्रांतिकारी आंदोलन का इतिहास', आत्माराम एंड संस, 2009, पृष्ठ 374)
 
कुछ दिनों पहले तक राजधानी की सड़कों के किनारे खुले में यत्र-तत्र मूत्रत्याग कर लेने को लोग महज अशिष्टता मान संतोष कर लेते थे। एस पी, डी एम की कोठी के सामने भी ऐसा करने में शायद ही कोई खतरा मानते थे। आज 'स्वच्छता अभियान' के जमाने में ऐसा कहना-करना जोखिम भरा हो सकता है। किंतु आधुनिक भारत के हमारे किसी इतिहासकार मित्र को स्वतंत्रता संग्राम के जमाने की फाइल में कोई भारतीय एस पी, डी एम की कोठी के आगे मूत्रत्याग करता मिल जाए तो उसे स्वतंत्रता सेनानी से कम मानने के लिए शायद ही तैयार होंगे! 1942 की क्रांति के समय आरा के पास जमीरा में पाखाना फिर रहे कुछ लोगों को गोली मार दी गई थी। (मन्मथनाथ गुप्त, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 374)। कहने की जरूरत नहीं कि आधुनिक भारतीय स्वाधीनता के इतिहास में वे 'शहीद' हैं।

अतीत का गौरव

सिर्फ इतना कहना कि 'अपने अतीत के प्रति गौरव और अनुराग हमारे लिए बड़ी ख़तरनाक चीज़ है', काफी नहीं है। एक पराधीन राष्ट्र को अपने अतीत के गौरव से काट देना, यही तो अंग्रेजी साम्राज्यवाद का हथियार था। इसलिए अकारण नहीं है कि हमारा आरंभिक राष्ट्रवाद इसी 'गौरव' और 'अनुराग' पर खड़ा मिलता है। जब हमारा वर्तमान नैराश्यपूर्ण हो तो अतीत का अनुराग और गौरव ही हमें अवसादग्रस्त होने से बचा सकता है। हाँ, अतीत का गौरव और अनुराग अगर हमारे बेहतर वर्तमान और भविष्य के सपने से न जुड़ा हो तो खतरनाक अवश्य है।

इतिहास में स्त्री

हम वर्षों से पढ़ते-सुनते आ रहे हैं कि अब तक का सारा इतिहास पुरुषों का पुरुषों द्वारा लिखा गया इतिहास है। अर्थात पुरुष अपराधी और जज दोनों की भूमिका निभाता रहा है और मनोनुकूल फैसले लेता रहा है। इतिहास के इन फैसलों को बदलने के लिए जरूरी है कि प्रतिपक्ष को भी सुना जाये। इतिहास की इस पहल से उन नये साक्ष्यों की खोज शुरू हुई है जिन्हें पुरुष प्रभावित कर पाने में लगभग असमर्थ रहे हैं। स्त्री-गीत इतिहास के ऐसे ही साक्ष्य हैं जिनके बारे में लगभग विश्वासपूर्वक कहा जा सकता है कि वे मूलतया स्त्रियों द्वारा रचित एवं संरक्षित हैं। इसलिए स्त्रियों का कोई भी वास्तविक और प्रामाणिक इतिहास स्त्री-गीतों से गुजरे बगैर नहीं लिखा जा सकता।

'अभिलेख-बिहार' (अंक 6) में शारदा शरण का एक लेख प्रकाशित है जिसका शीर्षक है, 'स्वतंत्रता संग्राम के दौरान की वीर गाथाएं:बक्सर जिला के सन्दर्भ में'। कहने की जरूरत नहीं कि इस लेख में आजादी के दौरान बिहार में प्रचलित गीतों का अध्ययन प्रस्तुत किया गया है। इन गीतों में लगभग सभी स्थलों पर पुरुषों को संबोधित किया गया है। 'मर्द हो मर्दानगी के साथ, मरना सीख लो', 'चल भइया', 'शाहाबाद के वीर सपूतों' तथा 'अब चले झुण्ड मर्दानों का' आदि संबोधनों का प्रयोग करते हुए पुरुषों का आह्वान किया गया है। एक भी गीत में आश्चर्यजनक रूप से स्त्रियों का आह्वान नहीं है। एक गीत में चर्चा है भी तो आंदोलन के बाधा के रूप में। एक गीत में कहा गया है, 'हम मातृभूमि के सैनिक हैं/अब प्राणों का है मोह कहाँ/केसरिया बाना पहन लिया/नारी बच्चों का छोह कहाँ।' इन गीतों के आधार पर क्या यह कहा जा सकता है कि राष्ट्रीय आंदोलन में बिहार की स्त्रियों की अपेक्षित भागीदारी नहीं थी? अथवा यह कि स्त्रियों के अपने गीतकार नहीं थे? अगर नहीं थे तो क्यों?

इतिहास और रामकथा

रामकथा की एक समृद्ध परंपरा है भारतीय भाषा साहित्य में। फादर कामिल बुल्के ने रामकथा पर एक अत्यंत ही महत्त्वपूर्ण और मूल्यवान शोधकार्य किया है। संस्कृत और प्राकृत दोनों ही में थोड़े बहुत परिवर्तन के साथ रामकथा मिलती है। तुलसीदास ने इस सम्पूर्ण रामकथा साहित्य का गहन अध्ययन किया था। लेकिन तुलसीदास ने अपनी रामकथा का आधार वाल्मीकि की रामायण को बनाया। वाल्मीकि की रामायण के पहले भी रामकथा की एक सुदीर्घ मौखिक परंपरा थी। कुशीलव नामक जाति के लोग इस रामकथा का लोक में और राजा के दरबार में वाचन किया करते थे। इसी मौखिक परंपरा को आधार बनाकर वाल्मीकि ने रामायण की रचना की। राम कोई ऐतिहासिक पात्र न होकर काल्पनिक कथा के पात्र हैं। वाल्मीकि, बिमलसूरि, कबीर तथा तुलसीदास-सबके अपने अपने और बहुत कुछ मिलते जुलते राम हैं, लेकिन हैं सब काल्पनिक। तुलसी के राम बहुत हद तक वाल्मीकि के राम हैं, तो दोनों एक ऐतिहासिक काल में कैसे संभव हैं? कवि से हम इतिहास की मांग ही क्यों करें? साहित्य को साहित्य की तरह पढ़ें। हाँ, हम इतिहास का विवेक जरूर इस्तेमाल करें। इतिहास के सन्दर्भ में मुझे लाला हरदयाल की कही बात हमेशा याद रहती है कि वह हजाम के उस्तरे की तरह है। अगर हजाम सही हुआ तो दाढ़ी बनने के बाद आप सुन्दर लगेंगे अन्यथा उस्तरा आपको घायल कर सकता है। इतिहास एक सही हजाम की मांग करता है।

इतिहास के तथ्य और इतिहास बोध

 हम इतिहास को महज इतिहास के तथ्य से जोड़कर देखते हैं, इतिहास बोध से नहीं। मेरे इस कथन से किसी को यह अर्थ नहीं निकाल लेना चाहिए कि मैं इतिहास के तथ्य की उपेक्षा कर रहा हूँ और महज इतिहास बोध के आधार पर इतिहास लेखन की वकालत कर रहा हूँ। बल्कि मेरा कथन तो उनलोगों के खिलाफ महज प्रतिकार है जो घोषणा करते हैं कि 'मैं तथ्य से बाहर जाने का साहस नहीं कर सकता हूँ क्योंकि इतिहास बोध मिथकों का भी हो सकता है।' इस तरह की घोषणा करनेवाले इतिहासकार जाने-अनजाने तथ्य को 'पवित्र' और 'अंतिम' मान लेने की भूल करते हैं। वे कहेंगे, 'तथ्य पवित्र हैं और मन्तव्यों पर कोई बंधन नहीं है।' किंतु नहीं, इतिहास हमें बताता है कि तथ्य न तो पवित्र होते हैं और न अंतिम। ई. एच. कार ने इस संदर्भ में एक बड़ी रोचक बात कही थी जिसकी तरफ हमारे इतिहासकार बहुत कम ध्यान देते आये हैं। कार ने 'तथ्य निर्माण की प्रक्रिया' की बात कही थी। ठीक जैसे हिंदी कविता के क्षेत्र में मुक्तिबोध ने कविता की रचना प्रक्रिया का सवाल उठाया था। जिस तरह कविता की रचना प्रक्रिया को समझे बगैर कविता का मर्म नहीं समझा जा सकता है उसी तरह इतिहास में तथ्य निर्माण की प्रक्रिया को समझे बगैर इतिहास के तथ्य की 'प्रामाणिकता' सिद्ध नहीं हो सकती। कविता को समझने में कवि को भी समझना होता है। उसका परिवेश, उसकी शब्दावली एवं अन्य कवियों का प्रभाव तक देखना होता है। अब तो लिंग, जाति, धर्म आदि तमाम बातें देखी जाती हैं। इसी के आधार पर हम तय कर पाते हैं कि 'सहानुभूति' का साहित्य है अथवा 'स्वानुभूति' का। ये ऐसी चीजें हैं जिनके बगैर हम अर्थ का अनर्थ कर सकते हैं। ठीक इसी तरह एक विवेकवान इतिहासकार के लिये तथ्य संदेह से परे न हो सकते हैं न होने चाहिए। एक इतिहासकार का दायित्व न केवल तथ्य के आलोक में वैज्ञानिक और प्रामाणिक इतिहास लिखना है बल्कि स्वयं तथ्य की वैज्ञानिकता एवं प्रामाणिकता की जाँच करना भी है।
 
इतिहास के तथ्य महज तथ्य नहीं होते, कई दफा वे अपने आप में मुकम्मल इतिहास होते हैं। इंदिरा जब 9-10 साल की बच्ची थी तभी जवाहर लाल नेहरु ने पत्रों के माध्यम से उसे समझाया था, बताया था कि कैसे नदी किनारे बिखरे गोल लाल-काले पत्थर पहाड़ का अभिन्न हिस्सा हैं अथवा स्वयं पहाड़ हैं। पहाड़ के टूटने, नदी  के जल प्रवाह तथा अपरदन के अन्य अनेक कारणों को जाने समझे बगैर नदी किनारे मिले गोल पत्थर को पूरी तरह से समझने का दावा नहीं किया जा सकता। वैसे ये पत्थर अपनी विकास यात्रा की पूरी कहानी अपने साथ लिए चलते हैं, लेकिन जिसे इस कहानी में रुचि नहीं है या जिसमें 'अदृश्य', 'अव्यक्त' को पकड़ने की क्षमता नहीं है, नदी किनारे पड़े उस निठल्ले और बेजान पत्थर को उसके समूचे इतिहास से काटकर देखेगा। ठीक उसी तरह इतिहास दृष्टि से हीन व्यक्ति इतिहास के तथ्य को समग्रता में समझने का दावा नहीं कर सकता। ये तथ्य कई बार सूत्र रूप में होते हैं। उसकी व्याख्या उसके अतीत में होती है। उस व्याख्या को समझना ही दरअसल तथ्य को सही सन्दर्भ में समझने की शर्त है। साल दो साल से अधिक समय नहीं गुजरा है जब एक अखबार में चौंकानेवाला तथ्य देखने को मिला था। खबर थी कि अधिकतर भारतीय पत्नियां पति द्वारा की गई पिटाई को बुरा नहीं मानतीं। यह एक तथ्य है, ग्रामीण भारतीय समाज का सच है। भारतीय पत्नियों की कंडीशनिंग और पितृसत्ता के मकड़जाल को समझे बगैर इस तथ्य की शल्यचिकित्सा नहीं हो सकती। एक दृष्टिसम्पन्न इतिहासकार ऐसे तथ्यों का न सिर्फ वैज्ञानिक विश्लेषण करेगा बल्कि तथ्य के इर्द-गिर्द फैली व्याख्या को भी ध्यान में रखेगा।

 इतिहास बोध और इतिहास के तथ्य के संदर्भ में मदन कश्यप की कविता की याद आ रही है जिसमें वे कहते हैं कि स्त्रियों ने चूल्हे की आग को राख की परतों में जिन्दा रखा है। चूल्हे में आग अथवा राख का होना अगर इतिहास का तथ्य है तो आग को बचाए रखने की जद्दोजहद सम्पूर्ण स्त्री जाति का इतिहास है, साथ ही आग और राख का इतिहास भी। इसलिए एक जेनुइन इतिहासकार निश्चय ही इतिहास के तथ्य को महज एक तथ्य मानने की भूल कदापि न करेगा। जो इतिहासकार ज्ञात तथ्यों को एकत्र कर 'अंतिम विश्लेषण' में जुट जाते हैं वे दरअसल एक ऐतिहासिक भूल करते हैं। कई दफा हम जिसे तथ्य समझ रहे होते हैं दरअसल वह तथ्य होता ही नहीं  है, तथ्य उससे परे होता है। जिसे हम वास्तविक तथ्य समझते हैं वह तो तथ्य का आभास भर होता है। 

वैज्ञानिक तथ्य है कि सूर्य की किरणों को पृथ्वी तक आने में आठ मिनट का समय लगता है अर्थात सूर्य को हम आठ मिनट विलम्ब से देखते हैं। सूर्यास्त के साथ भी यही सच्चाई है। सूर्य से चली अंतिम किरणों को हम आठ मिनट बाद ही देख पाते हैं जबकि हम पृथ्वीवासियों के लिए आठ मिनट पहले ही सूर्य 'विदा' बोल चुका होता है। ठीक उसी तरह काल गणना में या तो भूत हो सकता है अथवा भविष्य, वर्तमान महज एक क्षीण विभाजक रेखा है। या तो आप भूतकाल में होते हैं या तो भविष्यत काल में। वर्तमान में होना दरअसल नहीं होना है, लेकिन हम हैं कि वर्तमान को मुट्ठी में कस लेना चाहते हैं। इसकी जड़ में हमारी यह भ्रांत धारणा होती है कि भविष्य वर्तमान का नतीजा है। हकीकत में दरअसल भूत/अतीत है जो हमारे वर्तमान और भविष्य दोनों का नियंता है। वर्तमान इतना क्षणिक है कि लगभग अस्तित्वहीन है।

इतिहासकारों द्वारा हमें बार-बार लगभग चेतावनी की भाषा में बताया जाता रहा है कि इतिहास में अगर-मगर अथवा संयोग की कोई भूमिका नहीं होती है। मसलन, इतिहास में ऐसे प्रश्नों के लिए कि 'अमुक घटना नहीं होती तो इतिहास का स्वरूप क्या होता' अथवा 'गाँधी नहीं होते तो देश आजाद होता अथवा देश विभाजन होता या नहीं', जैसे प्रश्न इतिहास के विद्यार्थी के लिये बेमानी हैं। आप कह ले सकते हैं कि इस तरह इतिहास खुद 'ऐतिहासिक नियतिवाद' का शिकार है। किंतु तथ्य निर्माण की प्रक्रिया के अनुभव इतिहास में संयोग की भूमिका से इनकार नहीं करते। इस भूमिका को नकारने की भूल वे अवश्य करेंगे जो संयोग को भाग्य सुन-समझ बैठते हैं। ऐसा तो बिल्कुल भी नहीं है कि संयोग की दुहाई कर्महीन नर देते हैं। 

तथ्य का बनना न बनना महज संयोग भी हो सकता है। इस संदर्भ में बचपन में पढ़ी झाँसी की रानी कविता, जिसका संबंध रानी लक्ष्मीबाई की जीवन घटनाओं से है, अत्यंत मूल्यवान अर्थ दे सकती है। कविता की पंक्ति है, 'घोड़ा अड़ा नया घोड़ा था, इतने में आ गए सवार'। इसके बाद जो हुआ वह हमारे आपके लिए इतिहास का तथ्य है। घोड़ा नया न होता तो सम्भवतः इतिहास के दूसरे ही तथ्य होते। इस प्रसंग में आलोकधन्वा की कविता 'भागी हुई लड़कियां' भी कुछ बात जोड़ती है। कवि हमें सावधान करता है कि सिर्फ एक लड़की के भागने की बात स्वीकार मत कर लेना क्योंकि और भी लड़कियां हैं जो अपनी डायरी, अपने रतजगे और अपने सपने में भागी हैं। उनकी आबादी कई गुना ज्यादा है लेकिन जो अख़बार के किसी कोने में दर्ज नहीं है। ये लड़कियां भी इतिहास के समय को उतना ही ज्यादा प्रभावित करती हैं जितना एक 'सचमुच की भागी हुई लड़की', लेकिन एक इतिहासकार तो वही पढ़ेगा जो दीमक लगे दस्तावेज में दर्ज है ।

तथ्य निर्माण की प्रक्रिया सरल, सहज व एकरेखीय नहीं होती। परंपरा, लोक रीति, आचार-विचार व नैतिक मूल्य- ये सभी तथ्य निर्माण की प्रक्रिया को गहरे प्रभावित करते हैं। अक्सर अख़बारों में खबर छपा करती है कि आज दो सौ यात्री बिना टिकट यात्रा करते पकड़े गए। निस्संदेह इसमें कुछ वैसे यात्री भी होते हैं जो टिकट जाँचकर्ता को पैसे दे दिलाकर 'खबर का हिस्सा' बनने से बच जाते हैं। क्या कभी अख़बार में यह खबर छपी कि कुछ बिना टिकट यात्रा करते यात्री महज इसलिए बच गये कि जांचकर्ता ने उससे घूस की रकम खायी थी। ऐसी घटनाएं रोज ही घटती हैं पर दर्ज होने से हमेशा रह जाती हैं। कुछ साल हुए जब मुझे एक अप्रिय खबर हाथ लगी थी। घटना थी कि मेरा कभी का छात्र रह चुका बच्चा किसी की बाइक लेकर गायब हो गया। यह खबर पहले पुलिस तक गई और फिर इंजीनियर दादाजी के पास। दादाजी अपने इलाके के एक प्रतिष्ठित नागरिक थे। अपनी 'प्रतिष्ठा की रक्षा' में वे थाने पहुंचे और थानेदार देवता की पूजा कर मामले को रफा दफा किया-  कराया। लोगबाग चर्चा कर रहे थे कि 'देखिए एक  प्रतिष्ठित दादाजी का पोता कैसा भारी चोर निकल गया!' दूसरी ओर, वे इस बात पर राहत व्यक्त कर रहे थे कि ये तो थानेदार 'बेचारा भला आदमी'  निकला जिसने ले-लिवाकर दादाजी के चेहरे पर 'कालिख पुतने' से बचाया। यह कैसा सामाजिक मूल्य है कि लड़कपन में जिसने गाड़ी उठा ली वह भारी चोर हो गया और जिसने घूसखोरी जैसा घोषित अपराध किया वह 'बेचारा भला आदमी' बना। क्या आप अब भी इस बात से सहमत नहीं होंगे कि इतिहास के तथ्य न तो 'पवित्र' होते हैं और न तो हो सकते हैं। कभी कभी तो दूरदर्शन के चैनलों पर घटना की लाइव प्रस्तुति दिखाई जाती है। कई बार प्रस्तुति के क्रम में दुर्घटना तक घट जाती है। दूसरे दिन अख़बार में निकलता है कि गहरे तालाब में डूबकर बच्चे की मौत हो गयी। सवाल है कि बच्चा डूबा या कि डूबने दिया गया या कहें कि डूबा दिया गया। खबर तो यह होनी चाहिए थी, लेकिन ऐसी खबर आपने देखी-पढ़ी है क्या?

 नहीं, इतिहास के तथ्य उतने भी पवित्र और निर्दोष नहीं होते जितना कि 'तथ्य सम्प्रदाय' के लोग मानते हैं। लेकिन वे तो यह भी कहेंगे कि इतिहास में तथ्य ही 'असली' और 'प्रामाणिक' हैं, व्याख्या तो 'कहानी' है। वस्तुतः जिस 'गुण' के कारण इतिहास कहानी है वही उसकी ताकत है। अगर ऐसा नहीं होता तो बहुत पहले 'अंतिम इतिहास' लिख दिया गया होता और हम 'इतिहास के अंत' की घोषणा पर छाती नहीं कूट रहे होते!

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